वर्ष १९४७ के विभाजन के फलस्वरूप हमारे सिन्धु प्रांत का विलय इस्लामिक पाकिस्तान में हो गया
ऐसी स्थिति में, "हिन्दुत्व" वाली अपनी पहचान के लिए ख़तरे को भांप कर हम धर्मनिरपेक्ष भारत में आ तो गए, परन्तु भारत में उतनी ही महतवपूर्ण दूसरी पहचान "सिन्धुत्व" के लिए गम्भीर ख़तरा उत्पन्न हो गया|
विभाजन से विस्थापित अन्य दो भाषायी समुदायों पंजाबीयों और बंगालीयों को तो क्रमश: पश्चिमी पाकिस्तान व पूर्वी पाकिस्तान की सीमा से सटे हुए खेत्रों में बसाया गया, लेकिन विस्थपित सिंधियों को सिंध प्रांत की सीमा से सटे हुए खेत्र में बसने की नीति के आभाव में हम सिन्धी हिन्दुओं को भारत के विशाल भूमि खेत्र में बिखरने के लिए मजबूर होना पड़ा
परिणामस्वरुप, हम प्रत्येक स्थान पर अल्पसंख्यक बन गए और स्थानीय बहुसंख्यक संस्कृति के प्रभाव वश, हमारे लिए अपनी सिन्धी पहचान बचाना भी दुष्कर हो गया है |
विपरीत परिस्थितयों के बावजूद, सिन्धुत्व बचाने हेतु, विगत ६३ वर्षों में हमने सभी उपाय आज़माये , परन्तु सिन्धुत्व को वर्तमान बीमार स्थिति में आने से बचा नहीं पाए हैं
पुरानी पीढ़ी को याद दिलाने तथा नयी पीढ़ी को जानकारी कराने के लिए, अबतक के उपायों को सूचीबद्ध कर रहा हूँ :-
१) लगभग सभी बड़े नगरों में हमने सिन्धी पाठशालाएं, विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित किये
२) कम पाठकों के बावजूद, ढेर सारा उच्चस्तरीय सिन्धी साहित्य और सिन्धी बाल साहित्य हमने सृजित किया| पाठकों की संख्या में वृद्धि हेतु हमने अपनी सिन्धी लिपि तथा सिन्धी भाषा तक दांव पर चढ़ा दी|
३) हमने सिन्धुत्व के प्रचार प्रसार हेतु सभी साहित्यक गतिविधियों - प्रचार गोष्ठियों, वर्कशॉप, कविसम्मेलों, मुशायरों और नाटक-नाटकों का आयोजन भी किया|
४) विद्यालयों के बंद हो जाने पर सिन्धी लेखन-पठान सिखाने के विशेष कार्यक्रमों का आयोजन भी किया तथा पर्याप्त उपस्थिति सुनिश्चत करने हेतु हमने मुफ्त पुस्तकों और नकद पुरुस्कारों के प्रोत्साहनो की भी व्यवस्था की|
५) हमने सिन्धी भाषा को भारतीय संविधान की आठवीं परिशिष्ठी में सम्मिलित भी करवाया|
६) सिन्धी विकास बोर्ड भी कई वर्षों से स्थापित है|
७) अधिक सिन्धी जनसँख्या वाले प्रान्तों में सिन्धी अकादमीयां भी स्थापित हुई हैं|
८) कम दर्शकों के बावजूद दूरदर्शन चैनलों में सिन्धी प्रोग्राम नियमित रूप से आ रहे हैं और हानि के बावजूद सिन्धी फ़िल्में भी बन रही हैं|
९) स्व. राम पंजवानी का "मटका", मास्टर चंद्र के "गीत", स्व. भगवंती नावानी का " मधुर स्वर" और असंख्य सिन्धी कलाकार मंडलीयों के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी सिन्धुत्व को स्थायी रूप से जीवित रखने में सफल नहीं हो पा रहे हैं|
१०) सिन्धुत्व की रक्षा और विकास में अबतक बने सिन्धी उपप्रधानमंत्री, केंद्रीय तथा प्रादेशिक मंत्रिमंडलों में सम्मिलित सिन्धी मंत्रियों, सिन्धी राज्यपालों, सिन्धी सांसदों तथा सिन्धी विधायकों के नगणय से योगदान की अनुभूति भी सिन्धी जनता कर चुकी है| स्पष्ट है कि संसद और विधान सभाओं आदि में आरक्षण की मांग पूर्ण होने पर, सिन्धी नेताओं की मात्र संख्या वृद्धि होगी, सिन्धुत्व के विकास में उनके प्रभावी योगदान की अपेक्षा नहीं की जा सकती|
अतः सिन्धुत्व को स्थायी रूप से जीवित रखने तथा उतरोतर विकास हेतु प्रभावी विकल्प पर हमें गंभीरता से विचार करना होगा
विभाजन के बाद, सब कुछ छोड़कर हम अपने साथ केवल " सिन्धुत्व का पौधा" ले आये थे
अबतक उपरोक्त उपायों रुपी " पानी के छीटों" से हम इस पौधे को किसी प्रकार से पूर्णतया सूखने/ मुरझाने से बचाते आ रहे हैं
पर आख़िर कब तक ? पौधे को हरा भरा करने हेतु आवश्यक है उसकी जड़ों का पर्याप्त विकास तथा जड़ों के विकास हेतु चाहिए माटी-ज़मीन-भूमि
अतः हमें हर कीमत पर ज़मीन की व्यवस्था तो करनी ही होगी
विचारणीय केवल यह है कि वांछित ज़मीन/भूमि कौन सी और कहाँ होनी चाहिए
स्पष्ट है कि यह ज़मीन/भूमि ऐसी होनी चाहिए, जिसमें हमारा "सिन्धुत्व का पौधा" हरा भरा विकसित हो सके
सिन्धु प्रान्त की ज़मीन से लाये गए इस पौधे के विकास हेतु उपयुक्त और आदर्श ज़मीन/भूमि तो हमारे मूल वतन सिन्धु की ही भूमि है, परन्तु उसकी वापसी में लगने वाला समय असीमित व अनिश्चित है - तब तक तो हमारा पौधा शायद पूर्णतया सूख/मुरझा जाये
अतः सिन्धु प्रान्त की सीमा से सटी हुई ज़मीन, जहाँ की मिटटी और जलवायु में विशेष अंतर नहीं है और जो इस पौधे को पुन: हरा भरा बनाने में सक्षम है, उसी सीमावर्ती भूमि पर ही हमें इस पौधे को लगाना होगा
इस भूमि के खेत्र में जैसलमेर, बाड़मेर, पालनपुर, जालोर(केवल कतिपय तहसीलें) तथा कच्छ ज़िले स्थित हैं |
सर ग्रेरसन की पुस्तक " लिंगुईसटिक सर्वे आफ इंडिया", स्व० डॉ० उत्तम ठकुर की पुस्तक " डेस्टिनी आफ सिन्धीज़ इन इंडिया" तथा स्व० नानकराम ईसराणी भूतपूर्व अध्यक्ष राजस्थान सिन्धी अकादमी की पुस्तक " भारत में भूमिअ जी खोज" के मतानुसार उपरोक्त खेत्र के निवासीयों की भाषा सिन्धी अथवा सिन्धी की कोई डायलेक्ट (उपभाषा) ही है
भाषा वैज्ञानिकों के मतानुसार इस खेत्र में बोली जाने वाली उपभाषायें - कच्छी, डाटकी, थरी अथवा थरेली, सिन्धी भाषा की ठीक उसी प्रकार से उपभाषायें हैं, जिस प्रकार भोजपुरी, मैथली, अवधी, हरयाणवी और राजस्थानी हिंदी भाषा की उपभाषायें हैं
अतः राज्य पुनर्गठन आयोग १९५६ द्वारा प्रतिपादित मूल सिद्धांतों के आधार पर, उपरोक्त सिन्धी भाषी खेत्र वास्तविक रूप में(डी-फैक्टो) सिन्धी प्रदेश ही है, वैधानिक(डी-ज्योर) मान्यता हेतु हमें प्रयत्न करने होंगे|
इस प्रस्ताव पर सिन्धी जनता में सैद्धांतिक आम सहमति है और कोई भी सिन्धी व्यक्ति, संस्था, अथवा संस्थान इसका विरोध नहीं करता
लगभग सभी सिन्धी चिंतक अनुभव कर रहे हैं कि यही एक मात्र उपाय है जो सिन्धुत्व को स्वस्थ बनाकर स्थायी जीवन प्रदान कर सकता है
परन्तु कतिपय आशंकायें सिन्धी जनता को उद्देश्य प्राप्ति हेतु आगे बढ़ने से रोक रही हैं
सिन्धी जनता के सम्मुख सही स्थिति उजागर करने हेतु उठाये गए प्रशनो और आशंकाओं पर निम्नानुसार स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
१) विगत ६३ वर्षों के अथक परिश्रम के उपरांत स्थापित ठिकानों को छोड़कर पुनः विस्थापित होने के लिए कौन तैयार होगा ? सिन्धी प्रदेश तो क्या, मूल वतन सिंध भी मिल जाये, तब भी हम वहां नहीं जायेंगे|
स्पष्टीकरण:- यह सही है कि सिन्धी प्रदेश की विधिवत प्राप्ति के उपरांत भी, सभी सिन्धी वहां नहीं जायेंगे
परन्तु सभी सिंधियों को विस्थपित होकर वहां जाने की आवश्यकता भी नहीं है
दूसरों के उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं |
"पंजाबी सूबा" बन जाने के बाद भी सभी पंजाबी अन्य नगरों से उखड़कर वहां बसने नहीं गए
सभी बंगाली, केवल पश्चिमी बंगाल तथा बंगलादेश में ही नहीं रहते
महागुजरात की स्थापना के उपरांत भी सभी गुजराती मुंबई छोड़ कर वहां नहीं गए
केवल चंद गुजराती पूंजीपतियों ने मुंबई के साथ साथ अपनी शाखाएं सूरत में भी स्थापित कर दीं
इज़राइल की स्थापना के उपरांत भी सभी यहूदी वहां बसने नहीं गए
राजस्थान में रहने वाले मारवाड़ियों की तुलना में संभवतः राजस्थान के बाहर रहने वाले मारवाड़ियों की संख्या अधिक है |
अतः सिन्धी प्रदेश की विधिवत प्राप्ति के उपरांत, हमें अपने वर्तमान नगरों को अनिवार्यतः छोड़ना नहीं पड़ेगा
हाँ! राज ठाकरे जैसे नेताओं के सत्ता में आजाने पर, भविष्य में यदि हमारे लिए संकट उत्पन होता है तो हम अपने को, सिन्धी प्रदेश में ही अधिक सुरक्षित पाएंगे
अतएव, समझदारी इसी में है कि हम उपरोक्त "वास्तविक" सिन्धी प्रदेश को मानसिक रूप में अपना वतन मानते हुए उसके सर्वांगीण विकास में तन, मन, धन से भाग लें
इसके लिए गहन विचारोपरांत विस्तृत योजनायें / रूपरेखाएँ बनानी होंगी
इस खेत्र को अपनाने में कुछ पुरानी भ्रांतियां भी आड़े आ रही हैं- उदाहरणतः पानी की किल्लत
राजथान नहर, नर्मदा बांध तथा नमक शोध योजनाओं आदि के बाद, वहां पर पानी की स्थिति संतोषजनक है
कतिपय खेत्रों में तेल और गैस के विशाल भंडार भी मिले हैं
खुदाई का कार्य पूरा होने के उपरांत यह खेत्र भी दुबई कि भांति विकसित हो जायेगा - इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है |
अनेक सिन्धी विचारकों द्वारा समय समय पर उल्हासनगर, दादरा-नगर हवेली, अरब सागर के कतिपय प्राणीरहित द्वीपों आदि में सिन्धी प्रदेश स्थापित करने के सुझाव समय समय पर दिए जाते रहे हैं
इन स्थानों पर हम सिन्धी नगर, सिन्धी कालोनीयाँ तो बना सकते हैं, परन्तु सिन्धी प्रदेश नहीं
क्योंकि सिन्धी प्रदेश तो केवल वहीँ बन सकता है जहाँ हिन्टरलैंड और ग्रामीण खेत्र भी सिन्धी भाषी हों
यह "आधारभूत विशेषता" केवल सिन्धु प्रान्त से सटे हुए, उपरोक्त खेत्र में ही है, अन्य कहीं नहीं - कश्मीर के कारगिल/ लेह में से गुज़रती हुई हमारी अपनी सिन्धु नदी के किनारों पर भी नहीं
२) भाई प्रताप की गांधीधाम में, विस्थापित सिन्धीयों को बसाने की योजना के पूर्णतया असफल हो जाने के उपरांत भी, क्या पुनः उसी प्रकार का दुस्साहस उचित होगा ?
स्पष्टीकरण:- महात्मा गाँधी के परामर्श पर लगभग १६ हज़ार वर्ग मील समुंद्र तटीय भूमि, कच्छ रियासत के महाराज द्वारा, विस्थापित सिन्धीयों के बसाने हेतु , कानूनी लिखा पढ़ी के उपरांत विधिवत सिन्धीयों के प्रतिनिधि स्व० भाई प्रताप को दी गई, जिन्होने सिंध रीसैटलमेंट कारपोरेशन लि० के माध्यम से इस खेत्र में कांडला - आदीपुर - गांधीधाम काम्पलेक्स के नगर को स्थापित किया
यहाँ के बीहड़ जंगलों को साफ़ करने में सिन्धीयों का खून पसीना लगा हुआ है
अतः असंख्य सिन्धीयों ने इस नगर को अपना घर मानकर बसाया है
परन्तु अब भी अनेकों भूखंड ख़ाली है, जिनको बसाने में यदि सिन्धीयों ने विलम्ब किया तो मारवाड़ी, गुजराती और अन्य समुदाय इन भूखंडों को खरीदते जायेंगे और हम अपने ही शहर में अल्पसंख्यक बनकर हाथ मलते रह जायेंगे
निजी स्वार्थ वाले अवांछनीय तत्वों द्वारा जानबूझकर अफवायें फैलायी जा रही हैं कि स्व० भाई प्रताप की योजना असफल हो चुकी है
अफवाओं की और ध्यान न देकर, पूर्व में हुए विलम्ब की आपूर्ति हेतु हम सिन्धीयों को दुगने उत्साह के साथ दुतर्गति से कार्यवाही करनी होगी
इस खेत्र से यातायात के साधनों से अच्छी प्रकार से जुड़े हुए गुजरात और महाराष्ट्र, निकटता का लाभ उठाकर अपनी भूमिका अच्छी प्रकार से निभा सकते हैं
दोनों प्रान्तों के गरीब सिन्धी परिवारों के लिए ख़ाली भूखंडो को खरीदकर, सस्ते मकान बनवाने और उनके लिए उपयुक्त रोज़गारों की व्यवस्था करने पर इन प्रान्तों के पूंजीपतियों और भवन निर्माताओं को गम्भीरता से विचार करना होगा
३) सिन्धी प्रदेश की विधिवत प्राप्ति असंभव है, और तत्सम्बधी अग्रिम कार्यवाही अव्यवहारिक है
स्पष्टीकरण:- यह सच है कि हमारे जीते जी तो सिन्धी प्रदेश की प्राप्ति असंभव है और आज की तिथि में प्रस्ताव अव्यवहारिक प्रतीत होता है
क्योंकि इतने बड़े उद्देश्य के लिए कड़ा परिश्रम चाहिए, उत्साह चाहिए, शारीर की स्फूर्ति चाहिए और चाहिए क़ुरबानी
परन्तु इन विशेषताओं की अपेक्षा हम जैसे वृद्धजनों(बीमारीयों से आच्छादित, औषधियों पर आधारित) से तो की नहीं जा सकती
अतः उददेश्यों का उतरदायित्व हम अपने नवयुवकों पर छोड़तें हैं
कौम का यह कर्जा अपनी औलाद चुकता नहीं करेगी तो और कौन करेगा ?
मुझे पूरा पूरा विश्वास है कि हमारे सुपातर अपने पिताओं को इस कौमी क़र्ज़ से उबारेंगे
परन्तु हम बड़ों का यह कर्तव्य बनता है कि योजना का श्रीगणेश अपने जीते जी हम स्वंय कर जायं
क्योंकि इन बेचारों को तो सिंध और सिन्धुत्व की अधिक जानकारी नहीं है
सिन्धी नौजवानों का उचित मार्गदर्शन करते हुए, उनमें उत्साह का संचार करते हुए, प्रेरित करने का कार्य तो हम कर ही सकते हैं? याद रहे ! असंभव कुछ भी नहीं है
कौमों और राष्ट्रों से सम्बंधित प्रशनो के हल में शताब्धियां भी लग जाती हैं, हमें अपना वतन गंवाए तो मात्र ६३ वर्ष ही हुए हैं
सिन्धुत्व को जीवित रखने के लिए सिन्धी प्रदेश की प्राप्ति के अलावा अन्य कोई विकल्प भी तो हमारे पास शेष नहीं बचा है! अन्य सभी उपाय तो फेल साबित हो चुके हैं
अब थोड़ा बहुत सिन्धुत्व केवल धार्मिक स्थलों में शेष रह गया है, अतः हमारे नौजवानों को उद्देश्य की प्राप्ति हेतु तत्परता करनी होगी
४) सिन्धी प्रदेश की मांग और कार्यवाही से स्थानीय जनता हमारी दुश्मन बन जाएगी और यह दुश्मनी हमें बहुत महंगी पड़ेगी
स्पष्टीकरण:- हम में से अनेक, सिन्धी प्रदेश का नाम मात्र लेने से ही, इतना डरते हैं, मानो हम प्रस्तावित सिन्धी प्रदेश पर कोई चढ़ाही(हमला) करने जा रहे हों और वहां की भूमि पर बलपूर्वक कब्ज़े की बात कर रहे हों
जबकि ऐसा अनुमान पूर्णतया निराधार है
वास्तविकता तो यह है कि वहाँ के स्थानीय लोग बार बार हमें निमंत्रण देते हैं कि आइये हम परस्पर भाई हैं
निम्न उदाहरण इसकी पुष्टि के लिए पर्याप्त होंगे
I ) ऊषाबेन मेहता - कच्छ के सांसद का सिन्धी भाषा में दिया गया भाषण दिनांक २-११-१९८७
हमारे पूर्वज यहाँ पाँच सौ वर्ष पहले सिन्धु से आये और आप यहाँ चालीस वर्ष पहले आये
अंतर केवल इतना ही है
परन्तु हम हैं उसी सिन्धु वतन के और बोली भी मेरी और आपकी वही(एक ही) है
दोनों का इष्ट देव भी एक है| दरियाहशाह जिसे आप झूलेलाल कहते हैं, वास्तव में हममें कोई भी फर्क नहीं है| बंटवारे के समय सिंधियों को अपना समझकर ही यहाँ के महाराजा ने गांधीजी के परामर्श पर भाई प्रताप को सिंधियों को फिर से बसाने हेतु विशाल भू भाग मुफ्त में दिया और आज कांडला बंदरगाह कराची बंदरगाह को गंवाने की पूर्ति कर रहा है| गांधीधाम पर महात्मा गाँधी और संत लीलाशाह का आशीर्वाद है|
II ) स्व० डा० उत्तम ठकुर की चिट्ठियों में से :-
क) जिस समय राजस्थान प्रान्त का गठन हुआ उस समय जैसलमेर के और सीमावर्ती नागरिकों ने कड़ा विरोध जताया था
उस समय के विधायकों के कथनानुसार पं० जवाहरलाल के जैसलमेर आगमन पर स्पष्ट रूप से कहा गया था कि उनके सम्बंध सिंध प्रान्त के साथ हैं - राजस्थान के साथ नहीं
प्रति वर्ष आकाल के समय सभी हिंदु सिन्धु में पलायन कर जाते हैं और वहां के साथ ही आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बंध हैं
या तो आवागमन के वही रास्ते खोल दिए जाएँ या इस खेत्र को केंद्र शासित इकाई बनाकर विकास किया जाय - राजस्थान तो यहाँ का विकास नहीं करेगा
उस समय, मैं भी तत्कालीन विधायकों से विधायक निवास में मिला था
उनका कहना था कि सिन्धी केवल एक नेता हमें दें, फिर मिल कर हम अलग प्रान्त बनवायेंगे
यह भावना मेरी सूचना अनुसार अभी भी है
ख) १९४७ के पलायन के उपरांत सिंधियों से अपेक्षा की गई कि वे अपने को स्वयं ही बसायें
इस कारण वे समूचे भारत में छिटक गए
इसी कारण से ही सारी समस्याएँ उत्पन हुई हैं
इनसे निपटने हेतु सीमा के एक खेत्र में ही योजना बद्ध तरीके से हमारा पुनर्वासन किया जाय
सीमावर्ती खेत्र में बसाने के महत्व का अनुभव भारत सरकार को बंगलादेश के युद्ध के समय हुआ और ऐसा नीति निर्धारण भी उनके द्वारा किया गया
इसी नीति के अंतर्गत ही, १९७१ में विस्थापित सिंधियों में से ६५ हज़ार को बाड़मेर और जैसलमेर में बसाया गया और शेष कुछ हजारों को कच्छ में बसाया गया
यदि भविष्य में युद्ध हुआ और सिन्धु से पलायन हुआ तो भारत सरकार की नीतिनुसार उन्हें सीमावर्ती जिलों में ही बसाया जायेगा
फिर तो नई सिन्धु अथवा सिन्धी प्रदेश सरकार बनाये अथवा नहीं अपने आप ही इस खेत्र में बन जायेगा
स्पष्ट है कि प्रस्तावित सिन्धी प्रदेश के मूल निवासियों को वहां के आर्थिक विकास हेतु पूंजी निवेश चाहिए और हमें अपने "सिन्धुत्व के पौधे" में जड़ें लगाने के लिए ज़मीन चाहिए
अतः दोनों को एक दूसरे के सहयोग की अत्यंत आवश्यकता है
टकराव का जब कोई कारण ही नहीं है तो कंपकंपी और डर क्यों ?
दुर्भाग्य से सातवीं शताब्दी में राजा दाहरसेन की पराजय के उपरांत लगातार तेरह सौ वर्ष शासन तंत्र से बाहर होने के कारण "कायरता" संभवतः हमारे व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग बन चुकी है
यहूदियों की भांति हमें भी अपने आप को बदलना होगा और सिन्धी व्यक्तित्व के इस भाग को अपने नवयुवकों को धरोहर के रूप में नहीं देना है
मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमारे नौजवान, यह सिद्ध करके दिखायेंगे कि हम सिन्धी भी अन्य के भांति जानदार पुरुष हैं और खतरों का वीरता पूर्वक मुकाबला करना जानते हैं
जय सिंधु जय हिंद जय जगत